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निर्यत्पू॒तेव॒ स्वधि॑तिः॒ शुचि॒र्गात्स्वया॑ कृ॒पा त॒न्वा॒३॒॑ रोच॑मानः। आ यो मा॒त्रोरु॒शेन्यो॒ जनि॑ष्ट देव॒यज्या॑य सु॒क्रतुः॑ पाव॒कः ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nir yat pūteva svadhitiḥ śucir gāt svayā kṛpā tanvā rocamānaḥ | ā yo mātror uśenyo janiṣṭa devayajyāya sukratuḥ pāvakaḥ ||

पद पाठ

निः। यत्। पू॒ताऽइ॑व। स्वऽधि॑तिः। शुचिः॑। गात्। स्वया॑। कृ॒पा। त॒न्वा॑। रोच॑मानः। आ। यः। मा॒त्रोः। उ॒शेन्यः॑। जनि॑ष्ट। दे॒व॒ऽयज्या॑य। सु॒ऽक्रतुः॑। पा॒व॒कः ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:3» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसा राजा मानना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (पूतेव) पवित्रता के तुल्य (स्वधितिः) वज्र (शुचिः) पवित्र पुरुष (नि, गात्) निरन्तर प्राप्त होता है (यः) जो (स्वया) अपनी (कृपा) कृपा से (तन्वा) शरीर करके (रोचमानः) प्रकाशमान (मात्रोः) जननी और धात्री में (उशेन्यः) कामना के योग्य (पावकः) अग्नि के तुल्य प्रकाशित यशवाले (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञावाले (देवयज्याय) बुद्धिमानों के समागम के लिये (आ, जनिष्ट) प्रकट होता है, वही इस जगत् में प्रशंसा के योग्य होवे ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जिसको वज्र के समान दृढ़, अग्नि के समान पवित्र, कृपालु, दर्शनीय शरीर, विद्वान् धर्मात्मा जानो, उसी को इनमें से राजा मानो ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कीदृशो राजा मन्तव्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यद्यः पूतेव स्वधितिः शुचिर्नि गाद्यः स्वया कृपा तन्वा रोचमानो मात्रोरुशेन्यः पावक इव सुक्रतुर्देवयज्यायऽऽजनिष्ट स एवाऽत्र प्रशंसनीयो भवेत् ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (निः) (नितराम्) (यत्) यः (पूतेव) पवित्रेव (स्वधितिः) वज्रः (शुचिः) पवित्रः (गात्) प्राप्नोति (स्वया) स्वकीयया (कृपा) कृपया (तन्वा) शरीरेण (रोचमानः) प्रकाशमानः (आ) (यः) (मात्रोः) जननिपालिकयोः (उशेन्यः) कमनीयः (जनिष्ट) जायते (देवयज्याय) देवानां समागमाय (सुक्रतुः) उत्तमप्रज्ञः (पावकः) पावक इव प्रकाशितयशाः ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यं वज्रवद्दृढं वह्निवत्पवित्रं कृपालुं दर्शनीयशरीरं विद्वांसं धर्मात्मानं विजानीयुस्तमेवेषां राजानं मन्यन्ताम् ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो वज्राप्रमाणे दृढ, अग्नीप्रमाणे पवित्र, कृपाळू, दर्शनीय शरीराचा, विद्वान, धर्मात्मा असेल तर त्यालाच राजा माना. ॥ ९ ॥